सोमवार, जुलाई 14, 2025

राजा हर्षवर्धन और प्रयाग का संगम – एक ऐतिहासिक सत्य

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आज मै आपको एक ऐसी कहानी बताने जा रहा हो प्रयागराज और इसके इतिहास के पन्नों से जुड़ी है। जब भी आप प्रयागराज आए होंगे त्रिवेणी संगम जाते हुए एक मूर्ति राज्य हर्षवर्धन की जरूर देखे होंगे। तो ये प्रयागराज संगम की कहानी उन्ही से जुड़ी है। एक ऐसा राजा जो हर पांच साल में प्रयागराज आता था और अपना सर्वस्व दान करके वापस अपने राज्य चला जाता था। आज हम प्रयागराज से संबंधित राजा हर्षवर्धन और प्रयाग से जुड़े उनके इतिहास के परतों कों खंगालेंगे। 

राजा हर्षवर्धन कौन थे ?

महाराज हर्षवर्धन पुष्यभूति वंश के राजा थे। जिनके राज्य कार्यकाल का समय 606-647 ई. तक है। इनकी प्रारम्भिक राजधानी थानेसर(हरियाणा) थी जो बाद में कन्नौज स्थानांतरित कर दी गई थी। बात किया जाय धार्मिक आस्था की तो प्रारंभ में इन्होंने हिन्दू धर्म कों माना लेकिन बाद के बौद्ध धर्म के महायान शाखा को अपना लिया। साहित्यिक योगदान की बात किया जाय तो इन्होंने तीन किताब भी लिखी हैं – प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानंद। अपने 41 वर्ष के शासन के दौरान इन्होंने अपने राज्य को न्यायप्रियता, शिक्षा, कला और धर्म का आदर्श बनाया।

राजा हर्षवर्धन और प्रयाग का गहरा संबंध –

राजा हर्षवर्धन प्रत्येक 5वें वर्ष त्रिवेणी संगम के पास धार्मिक मेले का आयोजन करते थे। जिसमें देश के साधु-संतों, ब्राह्मणों, बौद्ध भिक्षुओं और जैन मुनियों को आमंत्रित किया जाता था। इस आयोजन को ‘महमोक्ष महासभा’ के नाम से जाना जाता था। जहां पर राजा हर्ष अपनी सारी संपत्ति जैसे वस्त्र, आभूषण, खजाना, घोड़े, हाथी और महल तक दान कर देते थे। 

इसकी पुष्टि हमें चीनी यात्री ह्वेनत्सांग के द्वारा लिखी गई किताब सी-यू-की में देखने कों मिलता है। जिसमें उसने लिखा है की राजा अपनी समस्त चीजें साधुओं एवं जरूरतमंदों कों दान करने के बाद संगम में स्नान करके साधारण वस्त्र पहनकर अपने राज्य को वापस लौटता था। 

हर्षवर्धन त्रिवेणी संगम

रोचक और प्रमाणिक तथ्य – विस्तार में –

 1. हर्षवर्धन ने प्रयाग में 6 बार मेला आयोजित किया

राजा हर्षवर्धन अपने शासनकाल के दौरान संगम तट पर हर 5वें वर्ष  6 बार इस महासभा का आयोजन किया था। जो ना सिर्फ धार्मिक अपितु ज्ञान, साहित्य और सामाजिक समरसता का आयोजन था। जिसमें विभिन्न पंथ के साधु, संत आया करते थे। ऐसा माना जाता है की कुम्भ मेले ऐतिहासिक नींव यही है। 

2. प्रयाग को ‘तीर्थराज’ की उपाधि — राजा हर्ष की मान्यता

वैसे तो पुराणों में प्रयागराज कों ‘तीर्थराज’ प्रयागराज के नाम से जाना जाता है, परंतु रजिनीतिक और सांकृतिक रूप से इसकी मान्यता हर्षवर्धन के समय में मिली। जिस तरह से उन्होंने प्रयाग कों धर्म और दान के स्थान के रूप में घोषित किया। साथ ही इस भूमि कों मोक्ष की धरती मानकर अपने सारे धार्मिक कार्यों कों यही केंद्रित कर दिया। इसका प्रमाण बाड़भट्ट् और ह्वेनत्सांग के पुस्तकों में मिलता है। 

3. राजा हर्षवर्धन और प्रयाग के बारे में ह्वेन त्सांग का वर्णन – एक आंखों देखा सत्य

ह्वेनत्सांग ने अपनी पुस्तक सि-यू-की में अपने आखों देखा दृश्य का वर्णन करते हुए लिखता है,  “राजा हर्षवर्धन का संगम में आयोजन इतना भव्य होता था कि लोग दूर-दूर से पैदल चलकर आते थे। स्वयं राजा अंत में साधारण वस्त्र धारण कर सब कुछ दान कर देते थे।”

निष्कर्ष –

इस प्रकार राजा हर्षवर्धन ना सिर्फ एक दूरदर्शी राजा थे बल्कि उन्होंने धर्म, परोपकार और न्याय को अपने राज्य की आत्मा बनाया। प्रयागराज में उनका योगदान आज भी कुम्भ के रूप में जीवित है। जहां लोग आस्था और समरसता के साथ संगम में स्नान करते है।

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