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सोमवार, नवम्बर 10, 2025

सुभद्राकुमारी चौहान: कविता की ज्वाला, स्वाधीनता की मशाल

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भूमिका

“खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी…”
जिस पंक्ति ने भारत के हर बच्चे की स्मृति में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की छवि अंकित कर दी। उसकी लेखिका एक स्त्री थीं, जिन्होंने न केवल कविता लिखी, बल्कि अपने शब्दों साथ ही स्वतंत्रता की लड़ाई भी लड़ी। वे थीं – सुभद्राकुमारी चौहान, हिंदी कविता की वह बुलंद आवाज, जिसमें संवेदना भी थी और शौर्य भी।

प्रारंभिक जीवन: बालिका सुभद्रा से कवयित्री तक

सुभद्राकुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904ई. को प्रयागराज जिले के निहालपुर गाँव में हुआ था। पिता रामनाथ चौहान एक जमींदार और समाजसुधारक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, जिनके सान्निध्य में सुभद्रा ने आरंभ से ही स्वतंत्र विचारों को आत्मसात किया।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा प्रयागराज में हुई और मात्र 9 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली कविता लिखी। यह बाल्यावस्था में उनके भीतर बसे साहित्यिक बीज का प्रमाण है। 1913 ई. में ही उनकी ‘नीम’ कविता मर्यादा नामक पत्रिका में छपी थी। 

सुभद्रा पढ़ने में तेज थीं और क्रॉस्थवेट कॉलेज प्रयागराज से शिक्षा प्राप्त की। वहां उन्होंने महादेवी वर्मा से मित्रता की जो जीवन भर बनी रही। महादेवी उन्हें “सबसे पहले कविता लिखने वाली लड़की” कहती थीं।

महिला कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान

सुभद्राकुमारी चौहान विवाह और पारिवारिक जीवन

1919 में, जब वे केवल 15 वर्ष की थीं, उनका विवाह खांडवा के ठाकुर लक्ष्मण सिंह चौहान से हुआ। जिसके बाद वो जबलपुर आ गईं। जो नागपुर में सेशन जज थे। लेकिन घरेलू जीवन कभी उनके साहित्यिक पंखों को बाँध नहीं पाया। साथ ही उनके पति ने भी उनका सहयोग किया और दोनों ने मिलकर आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिए। 

वे पांच बच्चों की माता थीं परंतु लेखनी और सामाजिक कार्य कभी रुके नहीं। एक ओर घर और बच्चे, दूसरी ओर कविता और क्रांति — उन्होंने दोनों को बखूबी साधा।

स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी

सुभद्रा जी सिर्फ कलम की क्रांतिकारी नहीं थीं, वे व्यवहारिक रूप से स्वतंत्रता संग्राम में शामिल रहीं। वे 1920 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में कूद पड़ीं। जब महिलाएँ सार्वजनिक मंचों से दूर रहती थीं, तब उन्होंने खुलकर सभाओं में भाग लिया। वो दो बार जेल भी गई। 

असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने अपने कविता में लिखा था –

“सबल पुरुष र्दद भीरु बनें, तो हमको दे वरदान सखी।                                                                            अबलाएं उठ पड़ें देश में, करे युद्ध घमासान सखी।                                                                                     पंद्रह कोटी असहयोगिनियां, दहला दें ब्रह्मांड सखी।                                                                                               भारत लक्ष्मी लौटाने को, रच दें लंका कांड सखी॥”

वे विदेशी कपड़ों की होली जलाने, प्रचार रैलियों में भाग लेने, और विद्रोह के लिए महिलाओं को संगठित करने में अग्रणी थीं।
उनकी कई बार गिरफ्तारी हुई और वे जेल भी गईं — एक गर्भवती महिला होकर भी उन्होंने आंदोलन को नहीं छोड़ा।

उनके बेटे प्रभाकर चौहान के अनुसार, “माँ की गोद और जेल का पलंग दोनों में उन्होंने बचपन गुजारा।”

ऐसे ही एक और आजादी के व्यक्तित्व मोतीलाल नेहरू के बारें में जानिए –

सुभद्राकुमारी चौहान का साहित्यिक योगदान: भावनाओं से भरी कलम

उनकी रचनाएँ दो स्पष्ट धाराओं में विभाजित हैं —

देशभक्ति से ओतप्रोत, नारी संवेदना से भरपूर से परिपूर्ण थी। उन्होंने जाति भेद-भाव को भी नहीं माना। और यहाँ तक की आजादी की लड़ाई में उन्होंने अपने कविताओं में विभिन्न धर्मों के भी साथ होने का संदेश दिया। उनकी रचनाओं वात्सल्य, प्रकृति एवं आधात्म भी दिखाई देता है। 

प्रमुख काव्य रचनाएँ:

मुकुल, त्रिधारा मुकुल तथा अन्य कविताएँ इनके तीन काव्य संग्रह हैं। उन्होंने कुल 88 कविताएं लिखी। 

  • “झाँसी की रानी” – हिंदी की सबसे प्रसिद्ध देशभक्ति कविताओं में एक। इसके साथ ही झाँसी की रानी सभा का खेल और कदम्ब का पेड़ इनके बाल साहित्य है।
  • “वीरों का कैसा हो वसंत” – युद्ध और बलिदान के सौंदर्य की प्रशंसा।
  • “जलियाँवाला बाग में वसंत” – शहीदों को समर्पित मार्मिक स्वर।

प्रमुख गद्य रचनाएँ:

बिखरे मोती(1932), उन्मादिनी(1934) और सीधे-साधे चित्र(1947) इनके द्वारा कहानी संग्रह लिखा गए जिसमें कई कहानीयों का भंडार था। बिखरे मोती में 15 कहानीयों का संग्रह है जबकि उन्मादिनी में 9 कहानीयां संग्रहीत हैं। सीधे-साधे चित्र में भी कुल मिलकर 14 कहानीयां हैं। कुल मिलाकर उन्होंने 46 कहानीयां लिखी थी।  

  • “मुझे बच्चों के साथ”, “बचपन के दिन” और “तीन सखियाँ” जैसी कहानियाँ सजीव चित्रण करती हैं।
  • उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘गौरी’ एक स्त्री के भीतर की पीड़ा, मानसिक द्वंद्व और सामाजिक सीमाओं की झलक देती है। गौरी में उन्होंने आत्मकथात्मक शैली में दिखाया कि कैसे एक शिक्षित स्त्री को भी समाज की घुटन झेलनी पड़ती है।

सुभद्राकुमारी चौहान की काव्य शैली और विशेषताएँ

  • उनकी भाषा सरल, स्पष्ट और सहज है — जो जनमानस से सीधा संवाद करती है।
  • वे अलंकारों और आडंबरों से दूर रहीं, बल्कि भावों की सच्चाई और यथार्थ के चित्रण को प्राथमिकता दी।
  • उन्होंने नारी मन की कोमलता के साथ-साथ साहस और विरोध के स्वर को भी स्थान दिया।

उनकी कविताएँ भावात्मक आवेग से भरपूर थीं और उन्हें पढ़ने के बाद केवल विचार नहीं, उत्तेजना और प्रेरणा मिलती है।

सुभद्राकुमारी चौहान की हुई थी असामयिक निधन

15 फरवरी 1948 को जब वे मध्यप्रदेश विधानसभा की सदस्य थीं, उसी समय जबलपुर से नागपुर जाते समय एक दुर्घटना में उनका निधन हो गया। वे मात्र 44 वर्ष की थीं। उन्होंने अपने मृत्यु के बारें में कहा था, “मैं चाहती हूँ, मेरी एक समाधि हो, जिसके चारों और नित्य मेला लगता रहे, बच्चे खेलते रहें, स्त्रियां गाती रहें ओर कोलाहल होता रहे।

उनका जाना साहित्य और राष्ट्र दोनों के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। जबलपुर में उनका नाम कई संस्थानों से जुड़ा है। साथ ही उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद जबलपुर नगर-निगम द्वारा 1949 में प्रतिमा स्थापित की गई है। 

सुभद्राकुमारी चौहान की प्रतिमा

सम्मान और स्मृति

  • सुभद्राकुमारी चौहान दो बार सेकसरीया पुरस्कार मिला। पहली बार ‘मुकुल’ कविता संग्रह के लिए 1931 में तो वहीं दूसरी बार 1932 में ‘बीखरे मोती’ कहानी संग्रह के लिए।  
  • 6 अगस्त 1976 ई. में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 25 पैसे का डाक टिकट जारी किया।
  • उनकी कई रचनाएँ NCERT पाठ्यक्रम में शामिल की गई हैं।
  • 28 अप्रैल 2006 ई. को इनके राष्ट्रप्रेम की भावना को सम्मान देने के लिए तटरक्षक बल के एक नए जहाज को सुभद्रा कुमारी चौहान के नाम पर रखा गया।  
  • आज भी हर 16 अगस्त को उनके जन्मदिन पर कवि सम्मेलनों में उनकी कविता ‘झाँसी की रानी’ गूंजती है।
 सुभद्राकुमारी चौहान, महिला कवयित्री

निष्कर्ष: 

सुभद्राकुमारी चौहान केवल कवयित्री नहीं थीं, वे एक विचार थीं, एक साहसिक चेतना थीं। उन्होंने साबित किया कि कविता केवल मनोरंजन नहीं, आंदोलन भी हो सकती है। उनका जीवन आज भी हर युवा लेखिका को प्रेरणा देता है  कि जब कलम में आत्मा हो, तो वह समाज बदल सकती है। यह लेख उनकी एक कविता के साथ समाप्त करते हैं –

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।                                                                                                                            मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे॥ 

प्रयागराज में उपस्थित है जैन दिगम्बर मंदिर इससे जुड़ी जानकारी भी जानिए –

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