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सोमवार, नवम्बर 10, 2025

प्रयागराज का इलाहाबाद किला: जहाँ इतिहास, आस्था और रहस्य एक साथ जुड़ते हैं

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प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) की पवित्र भूमि इतिहास से भरपूर हैं। गंगा, यमुना और पौराणिक सरस्वती के त्रिवेणी संगम के तट पर इलाहाबाद किला अपनी अटूट मौजूदगी दर्ज करता है। यह सिर्फ पत्थर और दीवारों का समूह नहीं है; यह शताब्दियों से चली आ रही कहानियाँ, सम्राटों की आकांक्षाएँ, आम लोगों की गहरी आस्था और युद्ध की रणनीतियाँ का जीवंत प्रमाण है। इस ब्लॉग में आप देखेंगे कि कैसे यह किला मिथक, आस्था, इतिहास और राजनीति को सुंदर रूप से एकत्र करता है।

किले का इतिहास – इक कहानी, अनेक चरण

1583 ईस्वी में मुगल सम्राट अकबर ने इस किले का निर्माण कराया था। उसने इसे “इलाहाबाद” (ईश्वर की नगरी) नाम दिया। इस किले का स्थान यमुना नदी के किनारे और त्रिवेणी संगम के पास होने के कारण धार्मिक और रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण था। यह अकबर ने पूर्वी भारत में अफ़गान विद्रोह को रोकने के लिए सैन्य और प्रशासनिक उपायों से बनाया था।

यह कहा जाता है कि इसके निर्माण में लगभग चालीस वर्षों से अधिक समय तक काम चला। इस विशाल संरचना को दिन-रात मिलकर 5,000 से 20,000 श्रमिकों और शिल्पकारों ने बनाया। इलाहाबाद म्यूज़ीयम  के एक अभिलेख के अनुसार, इस किले पर अकबर के समय पुरानी मुद्रा में लगभग ₹6,17,20,214 खर्च हुए थे। उस समय की सबसे महंगी परियोजनाओं में से एक थी यह।

किले निर्माण की कहानी में किंवदंतियाँ भी प्रसिद्ध हैं

एक स्थानीय कथा कहती है कि अकबर पहले एक ब्राह्मण मुनि “मुकुंद ब्रह्मचारी” के रूप में थे और गलती से गाय का बाल दूध में गिर गया था। इस पाप से दुःखी होकर उन्होंने आत्महत्या की थी। पुनर्जन्म में वे ‘म्लेच्छ’ बने और इस किले का निर्माण करके अपने अतृप्त कर्म को दूर करना चाहते थे। 

दूसरी कथा के अनुसार, किले की नींव बार-बार रेत में धँस रही थी। स्थानीय ब्राह्मण ने कहा कि मानव बलिदान देना होगा। एक ब्राह्मण स्वेच्छा से बलिदान हुआ और बदले में उसकी वंशजों को संगम-सेवा का अधिकार मिला।

ब्रिटिश काल तथा स्वतंत्रता-पूर्व

1765 ईस्वी में, यही किला “ट्रीटी ऑफ इलाहाबाद” नामक एक ऐतिहासिक दस्तावेज का गवाह बना। मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के मध्य संधि हुई थी। किले के रखरखाव की अधिकता के कारण किले कों 1775 ई. में शुजाऊदौला को बेंच दिया गया। लेकिन 1778 ई. में आर्थिक तंगी के कारण फिर से अंग्रेजों को दे दिया गया। 

यानी, भारत में ब्रिटिश शासन की औपचारिक शुरुआत यहीं से होती है। आज भी किले का ज्यादातर हिस्सा भारतीय सेना के अधीन है, इसलिए आम लोगों को आंतरिक हिस्से तक पहुँचना मुश्किल है।

वास्तुकला & विशेषताएं

इलाहाबाद किला अपनी मुग़ल स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। विशाल दीवारें, तीन बड़ी गैलरी, ऊंची मीनारें, महल और संरचनाएं इसे अभेद्य किले का रूप देती हैं।
किले के भीतर प्रमुख धार्मिक स्थल हैं:

  • अक्षयवट: एक पवित्र बरगद वृक्ष, ऐसा माना जाता था कि इससे कुएं में कूदने वाला अमर हो जाता था।
  • अशोक स्तंभ: अशोक स्तम्भ मौर्यकाल का तीसरी शताब्दी ई.पू. का स्तंभ, जिस पर बाद के गुप्त और मुगल काल की शिलालेख अंकित हैं। यह मूलतः कौशांबी से लाया गया था।
  • पातालपुरी मंदिर: पुरातन मंदिर, जो पौराणिक रूप से ‘नरक के द्वार’ के रूप में प्रसिद्ध है। किले में हिंदू और इस्लामी स्थापत्य का सांस्कृतिक मिश्रण स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, जो इतिहास की सहिष्णुता और विविधता को दर्शाता है।

वर्तमान स्थिति और भ्रमण टिप्स

आज भारतीय सेना किले का अधिकांश हिस्सा नियंत्रण में है। सामान्य पर्यटकों को अक्षयवट, अशोक स्तंभ और पातालपुरी मंदिर जैसे कुछ ही स्थानों तक जा सकते है। फिर भी, संगम किनारे से यह किला अपनी गंभीरता और भव्यता मन को मोह लेती हैं।

बात करें किले में प्रवेश का समय सुबह 7 से शाम 6 बजे तक (आर्मी-परमिशन वाले हिस्सों में प्रवेश सीमित)।

संगम नाव यात्रा के दौरान किले का सुंदर दृश्य मिलता है। यहाँ भ्रमण का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के मध्य है।

निष्कर्ष – 

इलाहाबाद किला सिर्फ एक ऐतिहासिक स्मारक नहीं है; यह एक जीवंत मानस पटल है, जहां धर्म, राजनीति, युद्ध और संस्कृति के कई रंग बिखरे हुए हैं। यह स्थान इतिहास, आस्था और समर्पण का अद्भुत संगम है, जो हर किसी को अपने गौरवशाली अतीत की झलक देता है।

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